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फँसे हुए दिल और दिमाग के तथाकथित चुनावी विश्लेषक मध्यप्रदेश के चुनाव को फँसा हुआ बता रहे थे। वे सतह पर तैरने वाली खबरों का उतना की कूड़ा बटोरते हैं, जितना कंधे पर टँगी उनकी बदहाल बोरी में समा जाए। मीडिया के नाम पर अधिकांश सतही ही बचा है, जहां तक जिसकी कोई दृष्टि नहीं है। बस किसने क्या कहा, आपका क्या कहना है, ऐसे ही घिसेपिटे सवाल करते-करते उनके बाल पक जाते हैं।
मैंने बीता एक पूरा महीना एक गाँव में गुजारा, जहाँ कई गाँवों के लोगों से मिलना हुआ और उनके जरिए दूरदराज गाँवों के हाल लगातार पता चलते रहे। मैं टीवी चैनलों और अखबारों से बिल्कुल ही दूर रहा। वहाँ इंटरनेट भी धुँधला था इसलिए मोबाइल के जरिए भी न्यूनतम संपर्क रहा। चुनिंदा चुनावी विश्लेषण पढ़े थे। विंध्य के विश्वकोष जयराम शुक्ला के अलावा ज्यादातर के लिखे हुए विश्लेषण फँसे हुए ही थे।
नतीजों ने भ्रमित दिल और दिमागों पर जमी धूल साफ कर दी है। सरकार के खिलाफ स्वाभाविक एंटी इंकम्बेंसी और बीजेपी के स्थानीय चेहरों से गहरी चिढ़ के अलावा बीस साल के कोई बड़े निगेटिव थे नहीं। दिवाली के त्यौहार के कारण पब्लिक का चुनावी मूड उभरा हुआ नहीं था। यह एक उदास सा चुनाव था, जिसे मैंने रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन कहा था। समाचार शीर्षकों में राजनीतिक दावपेंच दिखाई दे रहे थे लेकिन मतदाता जैसे समाधि लगाए हुए था।
बीजेपी के पोस्टरों पर मोदी छाए हुए थे, क्योंकि पोस्टरों के अनुसार एमपी के मन में वे थे और उनके मन में एमपी था। चुनाव में अपनी उपेक्षा के कष्टप्रद समाचारों से परे शिवराज सिंह चौहान अपने स्वभाव में स्थित और स्थिर थे और धुआँधार हर जिले में जा-आ रहे थे। बीजेपी की शुरुआती लिस्टों में जब तीन केंद्रीय मंत्रियों समेत सात सांसदों को दिल्ली से "रिटर्न टिकट' दिए गए तो प्रेशर कुकर की सीटी जोर से बजी थी। चुनावी चूल्हा गरमा गया था। मगर आखिरी लिस्ट में जैसे पूरी भाप बेकार ही निकल गई और चुनाव पूर्ववत् रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन हो गया।
कांग्रेस की बैलगाड़ी दो अनुभवी वयोवृद्ध बैलों के मजबूत कंधों पर थी- श्रीमान कमलनाथ और श्रीमान दिग्विजयसिंह। यह दो लक्ष्मीकांतों की ऐसी सुहानी जोड़ी है, जिनके लिए सरकार में आने पर यह चुनाव अपने-अपने प्यारेलालों को प्रदेश की भावी राजनीति की रिदम में फिट करने का एक गोल्डन चांस था। उन्हें देखकर राहुल गाँधी घंटों लंबी विदेश यात्राओं के एकांत में सीट पर बैठे अवश्य अपने स्वर्गीय पिता को नम आँखों से याद करते होंगे। वे अवश्य सोचते होंगे कि काश उनके पिता जीवित होते तो एक आदर्श भारतीय पिता की भाँति उनके करिअर के लिए भी कुछ न कुछ जोड़-मशक्कत कर ही रहे होते! वे ऐसे निराश्रित निरुद्देश्य दाढ़ी बढ़ाए न घूम रहे होते। उनका भी घरबार होता। दुकानदारी होती। मोहब्बत की दुकान पर गंध मारती सेक्युलर मिठाइयों पर मख्खियाँ न उड़ा रहे होते!
एक बात नोट कर लेनी चाहिए कि "कांग्रेस की फ्रेंचाइजी' में संगठन नाम की कोई चीज कहीं बची नहीं है। संगठन के लिहाज से बीजेपी की माइक्रो लेवल पर जमावट पर अलग से लिखे जाने की गुंजाइश है। दक्ष इंजीनियरों और तकनीशियनों से लैस बीजेपी की अत्याधुनिक मेगा चुनावी मशीन के आगे कांग्रेस घिसे-पिटे कलपुर्जों वाली एक ऐसी खटारा गाड़ी साबित हो चुकी है, जिसका ड्राइवर बीच-बीच में गाड़ी छोड़कर बाहर तफरीह पर निकल जाता है, जिसके पार्ट्स बाजार में मिलते नहीं हैं, जिसकी हेडलाइट पीछे रोशनी फेंकती है और हॉर्न छोड़कर सब कुछ बजता है! वह एक कर्कश कोलाहल है।
शहरों में कुछ हद तक फिर भी नेताओं की हलचल थी। गाँवों में पानी वैसे ही ठहरा हुआ था जैसा अंडमान में स्वराज द्वीप पर स्कूबा के लिए उतरे सैलानी समुद्री लहरों के केवल दस मीटर नीचे जल जीवों का रंगबिरंगा और शानदार नजारा देखते हैं। एक अलग ही दुनिया। मैं एक महीने तक ऐसी ही दुनिया में था, जहाँ सब कुछ ठहरा हुआ था। निस्संदेह लोग अपने विधायकों के चेहरों से चिढ़े हुए थे। वे उनके दस या पंद्रह साल को बुरी तरह भोग चुके थे और दस में से दो नंबर देने को तैयार नहीं थे। करप्शन के कारनामे करप्शन से ज्यादा चर्चाओं में थे।
मगर मानना होगा कि शिवराज सिंह चौहान की विश्वसनीय पहुँच किसी भी नेता की तुलना में गाँवों तक गजब है। एक अपना सा मुख्यमंत्री, जिसके राज में काम हुए हैं, किसान नाराज नहीं हैं, जाति या मजहबी अशांति नहीं है, कुलमिलाकर सब कुशल मंगल है, बस कम्बख्त एमएलए और बदल दें तो मजा आ जाए। मगर ज्यादातर एमएलए नहीं बदले, वे टिकट पाने में कामयाब रहे और मतदाता मौन होकर मायूस बैठे रहे। चुनाव और उदास हो गया। लग रहा था कि साठ फीसदी भी वोट हो जाए तो बहुत है। मगर ऐसे नीरस चुनाव में बंपर वोटिंग और इन नतीजों ने फँसे हुए दिमाग वाले विश्लेषकों के मुँह पर करारा चुंबन दे दिया।
ऐसा कैसे हुआ? अगर कोई लहर थी तो वो कहाँ लहराकर निकल गई? अगर कोई अंडरकरंट था तो वह कितना अंडर था? अब भी सस्ते और सतही आकलन केवल लाड़ली बहनाओं तक घूमकर लौट आएँगे, मगर आर्थिक रूप से प्रदेश के भविष्य को प्रभावित करने वाली यह स्कीम बीजेपी की चुनाव रणनीति की एक क्षणिक और तात्कालिक परत ही है, जिस पर शहरी वोटरों का कुछ हद तक गुस्सा भी है। इस चुनाव में गाँवों और शहरों के वोटरों के पास अपने-अपने अलग कारण थे कि वे खराब प्रत्याशियो के बावजूद पार्टी पर भरोसा जताएँ।
चुनावों से ठीक पहले सनातन पर छोड़े गए जहर को देखकर मतदाता क्या मन मसोसकर नहीं बैठे थे? हमास के आतंकियों का इजरायल पर हमला क्या तेल अवीव डेट लाइन की एक मामूली खबर थी और कांग्रेस का देश-विदेश की इन दोनों घटनाओं पर क्या रुख था, पलटकर याद कीजिए! कांग्रेस हमास के पक्ष में निर्लज्जता से खड़ी थी, जिसने बताया कि वह अब भी खिलाफत की खूंटी से बंधी बापू की सौ साल पुरानी बकरी है, जबकि दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई है। सनातन का विचार एक घातक वायरस है, जिसे जमीन में दफना देना चाहिए, ये घातक बहस कांग्रेस के लिए कोई चिंता की बात नहीं थी। "सेक्युलरिज्म' में ऐसे विषय आसानी से इग्नोर किए जा सकते हैं। मोहब्बत की दुकानों के व्यापारियों को समझना होगा कि मोहब्बत की दुकानें नहीं होतीं, मोहब्बत दिलों में होती है और वह महसूस करने की बात है, बेचने की वस्तु नहीं! अपने मुल्क से मोहब्बत सबसे पहले होनी चाहिए और वह जितनी ज्यादा है, उससे ज्यादा दिखनी भी चाहिए!
जी-20 में भारत की प्रस्तुति ने उन युवा वोटरों का ध्यान खींचा, जिन्हें कांग्रेस के दिग्विजयी शासन का बीस साल से भी पहले का कोई कष्टकारी अनुभव नहीं है। वे वैश्विक परिदृश्य में एक मजबूत केंद्र सरकार के पक्षधर हैं, जिसे राज्यों में भी भरपूर ताकत मिलनी चाहिए। वे वैश्विक परिदृश्य में एक सशक्त वैचारिक पार्टी को देख रहे थे, मुद्दों को देख रहे थे, विचारधारा को देख रहे थे, केवल प्रत्याशियों को नहीं। अगर आने वाले पाँच सालों में बीजेपी अपने कंगूरों पर टँगी बुझी और भभकती हुई कबाड़ लालटेनें हर राज्य में ससम्मान उतार दे और उपेक्षित योग्य कार्यकर्ताओं को हर स्तर पर लीडरशिप में आगे ले आए तो 2047 तक उसका कोई मुकाबला नहीं है। इस दृष्टि से इस विशेष चुनाव के विशेष मायने हैं।
ऐसा हमेशा नहीं होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य की एक बड़ी खबर की बाइलाइन लेने दिल्ली से भोपाल आएँ। उनके मन में एमपी है, एमपी के मन में वे हैं, यह एक बार ही चलने वाली चुनावी मुद्रा हो तो अच्छा है। मध्यप्रदेश का हाल बीजेपी के रहते इन्फ्रास्ट्रक्चर, किसान, महिलाएँ और कानून-व्यवस्था के लिहाज से कुल मिलाकर संतोषप्रद रहा है। गुंडों और अपराधियों पर नकेल कसी रही है। इंदौर में उनके शाही जुलूस निकले हैं। भोपाल में जेल से भागे इस्लामी आतंकियों को चंद घंटों में अंधेरी कब्रों में सुलाने वाले शिवराज सिंह ही थे, दस साल पुरानी जिस घटना को लगभग भुला ही दिया गया है। सोचिए यही काम यूपी या असम में होता तो योगी आदित्यनाथ या हेमंत बिस्वसरमा की कैसी बिग पिक्चर बनी होती? समय-समय पर शिवराज ने शालीनता से रेखांकित किया है कि उनकी उदारता को दुर्बलता न समझा जाए!
यह राजस्थान के उदयपुर में इस्लामी आतंक के शिकार हुए कन्हैयालाल के प्रति श्रद्धांजलि का वोट है। यह सनातन के खिलाफ खड़ी ताकतों के मुँह पर जोरदार तमाचे का वोट है। यह वोट बहुत जोर से यह कह रहा है कि राजनीतिक स्वार्थों के लिए भारत की सांस्कृतिक विरासत को कतई हल्के में न लिया जाए। यह वोट सत्य और असत्य के बीच स्पष्ट चुनाव का वोट है। यह उन लोगों का वोट है, जिनके हाथ में एक मोबाइल है और उसमें वे देश-दुनिया का हाल देख रहे हैं और अपने-पराए को पहचानने लायक दिमाग उनके पास है। वे सच और झूठ को समझ सकते हैं।
और अंत में, कोई कुछ भी कहे मेरा मानना यह है कि मध्यप्रदेश में बीजेपी की वापसी में कोई अदृश्य शक्ति ही सक्रिय थी, जो न लहर में थी, न तूफान में थी, न करंट में, न अंडरकरंट में, इसलिए वह "सांसारिक विश्लेषकों' की दृष्टि और अनुभव से अछूती रही और अपना असर दिखा गई। शिवराज सरकार का आखिरी शो और मुख्यमंत्री के रूप में अपने संपूर्ण कार्यकाल का सबसे महात्वाकांक्षी कार्य याद कीजिए। वह सितंबर में ओंकारेश्वर में हुआ था, 108 फुट ऊँची आचार्य शंकर की प्रतिमा का अनावरण। अब आज या कल मुख्यमंत्री कोई भी बने बीजेपी को नियति ने एक और अवसर ओंकारेश्वर प्रकल्प को विश्व पटल पर लाने के लिए ही दिया है!
लेखक- विजय मनोहर तिवारी
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