शिमला। राजधानी शिमला के समीप छराबड़ा स्थित पांच सितारा होटल वाइल्ड फ्लावर हॉल मामले की शुक्रवार (24 नवम्बर) को हिमाचल हाईकोर्ट में सुनवाई हुई। इसमें ओबेरॉय ग्रुप की ओर से हाईकोर्ट में 17 नवंबर के आदेशों को लेकर रिव्यू पिटीशन दायर की गई है। मामले की अगली सुनवाई 15 दिसम्बर को होगी।
राज्य सरकार की तरफ से हाईकोर्ट में वरिष्ठ अतिरिक्त अधिवक्ता आई एन मेहता ने सुनवाई के दौरान अपना पक्ष रखा। उन्होंने बताया कि कोर्ट ने ओबरॉय ग्रुप की तरफ से रिव्यू पिटीशन को स्वीकार किया है जिसका सरकार 8 दिसम्बर तक जवाब दायर करेगी और 15 दिसम्बर को मामले की आगामी सुनवाई होगी। सरकार पहले ही इस प्रॉपर्टी को वापिस लेने को लेकर अपना पक्ष रख चुकी और हाई कोर्ट जो भी आदेश देगा वह दोनों पक्षों को मान्य होगें।
वहीं ओबेरॉय ग्रुप के एडवोकेट राकेश्वर लाल सूद ने बताया कि कोर्ट ने रिव्यू पिटीशन को स्वीकार करते हुए सरकार को जवाब देने के लिए नोटिस जारी किया है इस नोटिस का जवाब 8 दिसंबर तक देना होगा। मामले में अगली सुनवाई 15 दिसंबर को होगी। 17 नवंबर के कोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार ने एग्जीक्यूटिव ऑर्डर निकाले थे। ओबेरॉय ग्रुप ने इन्हें चुनौती दी और कोर्ट ने सरकार के एग्जीक्यूटिव ऑर्डर को स्टे किया था। राकेश्वर लाल सूद ने बताया कि सरकार ने कोर्ट में माना कि कब्जा में लेने की गलती हुई है। आगे से अदालत के जो भी आदेश होंगे उसके अनुसार ही कार्रवाई की जाएगी।
बता दें कि बीते शनिवार को हाईकोर्ट के आदेश को अमल में लाते हुए प्रदेश सरकार ने करीब 500 करोड़ की संपति वाले होटल वाइल्ड फ्लावर हॉल को अपने कब्जे में ले लिया था, लेकिन तब सरकार के एग्जीक्यूटिव ऑर्डर पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी।
दरअसल हिमाचल हाईकोर्ट ने अक्टूबर 2022 में इस मामले में हिमाचल सरकार को बड़ी राहत दी थी। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में इस पांच सितारा होटल को सरकार की संपत्ति ठहराया था। अदालत ने स्पष्ट किया कि राज्य सरकार के पास संपत्ति को ओबरॉय ग्रुप और ईस्ट इंडिया होटल कंपनी से वापस लेने का पूरा अधिकार है। अदालत ने कंपनी के साथ किए करार को रद्द करने के निर्णय को सही ठहराया है।
वर्ष 1993 में भीषण आग लगने से वाइल्ड फ्लावर हॉल पूरी तरह से नष्ट हो गया था। इस स्थान पर नया होटल बनाने के लिए राज्य सरकार ने ईस्ट इंडिया होटल कंपनी के साथ करार किया था। करार के अनुसार कंपनी को चार साल के भीतर पांच सितारा होटल का निर्माण करना था। ऐसा न करने पर कंपनी को दो करोड़ रुपये जुर्माना प्रतिवर्ष राज्य सरकार को अदा करना था। वर्ष 1996 में सरकार ने कंपनी के नाम जमीन का स्थानांतरण किया था।