प्रदीप कुमार पाण्डेय | उत्त रप्रदेश
यह कहानी है प्रकृति की प्रतिकूलताओं के विरूद्ध मानव के यशस्वी संघर्ष की। सन् 1947 में विभाजन की विभीषिका में अपना सब कुछ खो कर शरणार्थी के रूप में आए पीड़ित बंगाली परिवारों के पुरूषार्थ की, जिन्होंने अपने परिश्रम से बालू के टीलों को लहलहाते खेतों में तब्दील कर दिया। गुरूदेव रविंद्रनाथ ठाकुर के जयंती के दिन बसे इस सुविधा-संपन्न गांव रविंद्र नगर को देखकर एक ‘आईडियल विलेज’ की कल्पना साकार होती नजर आती है।
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के मोहम्मदी तहसील के इस गांव में जल निकासी के लिए न कोई नाली है न कहीं कीचड़। गांव में वर्षों से जल संरक्षण के लिए ‘वाटर हार्वेस्टिंग तकनीक’ का उपयोग किया जा रहा है। घरों के पास बने सोखते गड्ढे हों, घर-घर शौचालय हों या पूरे गांव में लगे अनार, अमरूद, कटहल, नीम, आम,जामुन, आंवला, तुलसी जैसे फलदार व औषधीय पेड़ हों, ये सभी गांवों वालों की सामूहिक प्रयास की जीवंत कहानी कहते हैं। घरों की दीवारों पर चित्रकारी एवं हरा-भरा विद्यालय देखकर 100% साक्षरता वाले इस गांव में यह एक सपने के साकार होने जैसा लगता है।
50 वर्षों से चल रही संघ की शाखा ने इन परिश्रमी बंगाली परिवारों को विकास की नई राह दिखाई। आज रविंद्र नगर देश के सबसे विकसित गांवों में से एक है। कभी मियांपुर कहलाने वाले इस गांव को जादू-टोना करने वाले सपेरों का गांव समझकर लोग जाने से डरते थे। वहां भैरवचंद्र राय व प्रेमशंकर अवस्थी जैसे स्वयंसेवकों ने लोगों का विश्वास जीत कर गांव के विकास के दरवाजे खोले। भला विभाजन की पीड़ा को रविंद्र नगर के लोगों से बेहतर कौन समझ सकता है! वर्षों शरणार्थी कैंपों में भुखमरी, डायरिया,काला ज्वर, हैजा जैसी बीमारियों में अपनों को खोने के बाद पुनर्वासन के नाम पर उन्हें ट्रकों में भर कर आधी रात को गोमती के किनारे इस अरण्यक वन में छोड़ दिया गया था।
गांव के ही स्वयंसेवक व जिले के ग्राम विकास प्रमुख तपन कुमार विश्वास बताते हैं कि 1964 में यहां आकर बसे इन परिवारों ने 8 वर्षों तक भीषण कष्ट झेले। बंजर जमीन पर कुछ भी उगाना मुश्किल था। लोगों ने खाने के लिए श्यामा घास का बीज उबाल (चावल की तरह) मछली के साथ खाकर दिन बिताए। पहले गांव वालों ने कड़ा परिश्रम कर जमीन को खेती के लायक बनाया। 1969 में संघ के स्वयंसेवक भैरवचंद्र राय द्वारा पहली शाखा लगायी गई। तभी से यहां नियमित शाखा लग रही है।
पहला विद्यालय स्वयंसेवकों ने गांव वालों के द्वारा दी गई जमीन पर शुरू की जिसे बाद में सरकार से प्राथमिक विद्यालय की मान्यता मिली। आज भी संजय विश्वास, मलिका मण्डल, मिलन, शंभू जैसे कई युवा गांव के सरकारी स्कूलों में बच्चों को निःशुल्क पढाते हैं। शायद इसीलिए रविंद्र नगर 100% साक्षर है। यहां आज भी प्राचीन परंपरा के अनुसार प्रतिदिन घरों में गोबर से लिपाई की जाती है और शंख-ध्वनि से सुबह की शुरूआत होती है। विचित्र लगता है किंतु सत्य है, यहां रोजगार के लिए अधिकांश घरों में महिलाएं तेंदू पत्ते से बीड़ी बनाती हैं फिर भी गांव में कोई बीड़ी नहीं पीता। गांव में महिलाओं के चार स्वयं सहायता समूह, बचत के साथ-साथ सिलाई, कढाई और रोजगार के अन्य माध्यमों का प्रशीक्षण भी दे रहे हैं।
सरकारी स्कूल, पंचायत-घर, गली, मंदिर हो या फिर खेल के मैदान स्वयंसेवकों के साथ मिलकर गांव वालों ने इन सबको इतना स्वच्छ और सुंदर बनाया है कि पूरे उत्तर प्रदेश में इतना सुंदर सरकारी विद्यालय मिलना मुश्किल है। खेल का मैदान स्टेडियम में बदल चुका है। कच्ची सड़कों को भी श्रमदान कर पक्का कर दिया गया है। गांव में 2009 में संघ के माध्यम से ग्राम विकास के कार्य की शुरूआत करने वाले अवध के तत्कालीन प्रांत ग्राम विकास प्रमुख, गांव के पितामह के रूप में जाने जाने वाले संघ के स्वयंसेवक प्रेमशंकर अवस्थी जी कहते हैं कि इस गांव में कोई बेरोजगार नहीं है। औद्योगिक क्षेत्र में लगने वाली ऊंची चिमनियों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध रविंद्र नगर में मूर्ति बनाने, गृह निर्माण से लेकर ‘मोटर वाईंडिंग’ एवं ‘इलैक्ट्रिशियन’ तक के अनेक प्रकार के कार्य होते हैं। वे बताते हैं कि मुख्यमंत्री योगीजी के चिकित्सकीय सलाहकार डॉ चित्तरंजन विश्वास समेत गांव के कई युवा पढ़-लिखकर बहुत आगे बढ गए हैं।
संपर्क- तपन जी
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