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Makar Sankranti Speical Opinion: माघ मकर गत रबि जब होई…

एक स्थान से दूजे स्थान में पहुंचना व एक-दूसरे का मिलना 'संक्रान्ति' कहलाती है। 'संक्रान्ति' की व्युत्पत्ति पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि यह 'क्रम' धातु का शब्द है, जिसका अर्थ 'गति करना' है.

Yenakshi Yadav by Yenakshi Yadav
Jan 14, 2025, 12:29 pm GMT+0530
Makar Sankranti 2025

Makar Sankranti 2025

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एक स्थान से दूजे स्थान में पहुंचना व एक-दूसरे का मिलना ‘संक्रान्ति’ कहलाती है। ‘संक्रान्ति’ की व्युत्पत्ति पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि यह ‘क्रम’ धातु का शब्द है, जिसका अर्थ ‘गति करना’ है. इस धातु के पूर्व में ‘सम्यक्/उत्तम/श्रेष्ठ रूप से’ के अर्थ में ‘सम्’ उपसर्ग युक्त है। इस धातु में ‘क्तिन्’ प्रत्यय के जुड़ते ही ‘संक्रान्ति’ शब्द की रचना होती है। यहां इसका अर्थ है, ‘कोई ऐसा बड़ा परिवर्तन, जिससे किसी वस्तु का स्वरूप बिलकुल बदल जाये। जैसे– मकर संक्रान्ति। मकर संक्रान्ति पर्व के मूल मे रवि अर्थात् ‘सूर्य’ की गति है.

ज्ञातव्य है कि सूर्य मास में एक बार अपनी राशि को छोड़कर किसी अन्य राशि में प्रवेश करता है। वह जैसे ही किसी अन्य राशि में प्रवेश करता है वैसा ही वह उस राशि की संक्रान्ति कहलाने लगती है. यही कारण है कि मकर संक्रान्ति को सूर्य के संक्रमणकाल का भी पर्व माना गया है.

गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई पर ध्यान केन्द्रित करें– “माघ मास मकर गत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।” इस चौपाई के अर्थ से ही सुस्पष्ट हो जाता है कि माघ-मास मे जब सूर्य मकर-राशि पर जाता है तब सबलोग तीर्थराज प्रयाग में आते हैं, फिर ‘मकर संक्रान्ति’ के आयोजन के साक्षी बनते हैं। इसका आशय है कि सूर्य के राशि-परिवर्तन को ‘संक्रान्ति’ का नाम दिया गया है, जोकि मास में एक बार होता है। पहले सूर्य धनुराशि पर होता है, फिर वह जैसे ही मकर राशि पर पहुंचता है वैसे ही सूर्य ‘दक्षिणायन’ से ‘उत्तरायण’ हो जाता है। देवताओं के अयन को ‘उत्तरायण’ की संज्ञा दी गयी है, जोकि मंगल का प्रतीक होता है; मंगलकारी होता है, इसीलिए इसे ‘पुण्य-पर्व’ कहा गया है। अनुश्रुति है कि इससे शुभ कर्मों का समारम्भ होता है। यदि किसी की उत्तरायण मे मृत्यु होती है तो वह गमनागमन के बन्धन से मुक्त हो जाता है; अर्थात् उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इतना ही नहीं, जब तुलसीदास कहते हैं :– देव दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनी।।” तो इससे ज्ञात होता है कि मकर संक्रान्ति के अवसर पर देव, दैत्य, किन्नर तथा मानव-समूह– सब आदरसहित त्रिवेणी मे स्नान करते हैं.

इससे सुस्पष्ट हो जाता है कि मकर संक्रान्ति की कितनी महत्ता है। यही कारण है कि मकर संक्रान्ति का पर्व सूर्य को समर्पित होता है। सूर्य को आत्मबल और आत्मविश्वास का कारक माना गया है। इस अवसर पर सूर्य का दर्शन करके उन्हें अर्घ्य दिया जाता है। ऐसा विधान है कि तांबे के लोटे में रक्त (लाल) चन्दन, लाल पुष्प आदिक मिश्रित जल से पूर्वमुखी होकर तीन बार भगवान् भास्कर को जल दिया जाये, तत्पश्चात् अपने स्थान पर ही खड़े होकर सात बार सूर्य की परिक्रमा की जाये। उसके बाद सूर्याष्टक और गायत्री मन्त्र का पाठ किया जाये.

इस अवसर पर वर्जना भी है। जैसे– मैथुन करना, भैंस का दूध दूहना, फसल और वृक्ष काटना, कठोर वाणी का व्यवहार करना निषिद्ध है.

‘महाभारत’ के वनपर्व के अध्याय 43 मे मकर संक्रान्ति के विषय मे उल्लेख है :–

“मकरे संक्रमणे पुण्ये यः सूर्यं पूजयेत्ततः.

तस्य पापं न विद्यते स्वर्गे मार्गः स च विज्ञेयः।”

अर्थात् जो मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य की आराधना करता है, उसे पापों से मुक्ति मिलती है और वह स्वर्ग का अधिकारी बनता है. उपर्युक्त उपदेश श्रीकृष्ण-द्वारा अर्जुन को किया गया है, जिसमे उन्होंने मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य की पूजा की महत्ता बतायी है.

मकर संक्रान्ति-आयोजन के मूल मे दो कथाएं भी हैं। पहली कथा शनि और सूर्यदेव के साथ जुड़ी हुई है। सूर्य की एक पत्नी का नाम छायादेवी है। सूर्यपुत्र शनि का जन्म छाया देवी से ही हुआ था। शनि का शरीर जन्म से ही कृष्णवर्ण का था। सूर्य के कृष्णवर्ण को देखते ही भगवान् भास्कर ने सुस्पष्ट कर दिया था कि शनि उनका पुत्र नहीं है। इतना ही नहीं, इस आरोप को मढ़ते हुए, सूर्य ने शनि को माता सहित घर से निष्कासित कर दिया था। शनि और छाया ‘कुम्भ’ घर मे रहते थे। जब माता छाया को ज्ञात हुआ कि उनके पति सूर्य ने माता-पुत्र के लिए अभद्र शब्द-व्यवहार किये थे तब छाया ने उस असह्य वाक्य के कारण कुपित होकर अपने पतिदेव सूर्य को शाप दे दिया था– आप कुष्ठरोग से ग्रस्त हो जाइए। उसके पश्चात् सूर्य के क्रोध का ठिकाना नहीँ रहा। उन्होंने शनिदेव और माता छाया का घर ‘कुम्भ’ को अपने तेज से जला डाला। कालान्तर में, शनिदेव ने अपने पिता के कुष्ठरोग का उपचार कर दिया था; साथ ही उनसे यह भी कहा था कि वे माता छाया के साथ उचित व्यवहार करें। सूर्यदेव अपने पुत्र शनि के आचरण से प्रभावित होकर उनके घर पहुंचे; परन्तु वहां तो सूर्य के प्रकोप से जलाये गये घर की राख के ढेर ही मिला। शनि ने अपने पिता का अभिनन्दन काले तिल भेंट करके किया था। सूर्यदेव अपने पुत्र-द्वारा स्वागत-सत्कार देखकर अति प्रसन्न हुए थे। उन्होंने शनि को ‘मकर’ नामक दूसरा घर दिया था। यही कारण है कि ज्योतिर्विज्ञान के आधार पर शनिदेव को ‘मकर’ और ‘कुम्भ’ का स्वामी माना गया है। सूर्य ने वहां से लौटते समय कहा था :– मै प्रतिवर्ष इस घर (मकर) मे प्रवेश करूंगा, फिर यह घर धन-धान्य से परिपूर्ण हो जायेगा। यही कारण है कि जनसामान्य अपने घर को समृद्ध करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष मकर संक्रान्ति का आयोजन करता है.

अब दूसरी कथा को समझें– यह कथा मां गंगा और भगीरथ के साथ जुड़ी हुई है। एक बार की बात है, राजा सगर ने अपने राज्य मे अश्वमेध यज्ञ किया था। यज्ञ मे छोड़े गये घोड़े की देख-रेख करने का दायित्व अंशुमान को सौंपा गया था। उस यज्ञ के प्रभाव से देवलोक का आसन डोलने लगा था; दूसरी ओर, पाताललोक मे कठोर तपस्या कर रहे कपिल मुनि के तेज से देवराज इन्द्र भयभीत हो चुका था. इन्द्र ने “एक पन्थ-दो काज” को सिद्ध करने के उद्देश्य से एक षड्यन्त्र रच डाला। उसने एक दैत्य का वेश धारण कर उस घोड़े को चुरा लिया। वह उस घोड़े को लेकर पाताललोक के उस पूर्वोत्तर-भाग में गया, जहां कपिल मुनि तपस्या मे लीन थे. इन्द्र चुपके से उस घोड़े को मुनि के आश्रम में बांधकर चला गया.

उधर, घोड़े को न देखकर खलबली मच गयी। राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों से उस खोये हुए घोड़े का पता लगाने का आदेश किया था। उन्होंने पृथ्वीलोक को छान मारा; मगर घोड़ा कहीं दिखा नहीं, फिर उन्होंने पृथ्वी को खोदकर पाताललोक मे प्रवेश किया, जहां तपस्या में रत एक मुनि के आश्रम में वह घोड़ा बंधा दिखा था। ऐसा देखकर, सागर के उन पुत्रों ने अपना धैर्य खो दिया था। वे सब चीखते हुए, अभद्र भाषा का व्यवहार कर, कपिल मुनि को आरोपित करने लगे. उस चीख से उनकी तपस्या भंग हो गयी। मुनि ने क्रोधावेग मे जैसे ही आंखें खोलीं, राजा सगर के साठ हजार पुत्र भस्म हो गये.

कहा जाता है कि सगर के वंशज महाराजा दिलीप के पुत्र भगीरथ ने कपिल मुनि के क्रोध से भस्म हुए अपने पूर्वजों को तारने के लिए एक पैर पर खड़े रहकर मां गंगा की कठोर तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर गंगा ने उनसे वर मांगने के लिए कहा था। भगीरथ ने उनसे मृत्युलोक मे अवतरित होने का वरदान मांगा था, फिर क्या था– उसी क्षण मां गंगा का पूरे वेग के साथ धरती पर अवतरण हुआ था. गंगाधारा कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई गंगासागर पहुंची थी। इस प्रकार भगीरथ के साठ हजार पूर्वज तर गये। मकर संक्रान्ति के दिन ही मां गंगा स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुई थीं, जिनका संस्पर्श पाकर राजा सगर के समस्त पुत्रों को मुक्ति प्राप्त हुई थी। इससे मकर संक्रान्ति मे गंगास्नान का महत्व बढ़ जाता है.

मकर संक्रान्ति भारत-सहित नेपाल में भी आयोजित किया जाता है। इसका आयोजन भारत के कई राज्यों मे भिन्न-भिन्न नामों से किया जाता रहा है। इसे केरल-राज्य मे ‘मकर विलक्कु’ कहा जाता है। वहां के श्रद्धालुजन दिव्य मकर-ज्योति के दर्शनार्थ सबरीमाला मन्दिर मे जाते हैं। तमिलनाडु में इसे ‘पोंगल’ नामक उत्सव के रूप मे आयोजित किया जाता है. कर्नाटक में ‘एलु-बिरोधु’, पंजाब-हरियाणा मे ‘माघी-लोहड़ी’, उत्तराखण्ड और गुजरात मे ‘उत्तरायण’ के नाम मे मनाया जाता है. इस प्रकार भगवान् भास्कर से ज्ञान, ऊर्जा, ऊष्मा ग्रहण करने के उद्देश्य से ‘मकर संक्रान्ति’ पर्व-विशेष की महत्ता शीर्ष पर दिखती है.

(लेखक, व्याकरण एवं भाषा विज्ञानी हैं।)

आचार्य पं. पृथ्वीनाथ पाण्डेय

हिन्दुस्थान समाचार

Tags: Makar SankrantiOpinion
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