Birsa Munda Jayanti 2024: 1857 के दो दशक बाद धरती आबा बिरसा मुंडा (Birsa Munda) का उदय हुआ था. 15 नवंबर 1875 को खूंटी के उलिहातू में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ. बिरसा ने अपनी पढ़ाई चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल से की थी. पढ़ाई के दौरान ही बिरसा के अंदर क्रांतिकारी की आग दिखने लग गई थी.
इधर, सरदार आंदोलन भी चल रहा था, जो सरकार और मिशनरियों के विरूद्ध भी था. सरदारों के कहने पर ही बिरसा मुंडा को मिशन स्कूल से निकाल दिया गया. 1890 में बिरसा और उसके परिवार ने भी चाईबासा और जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी छोड़ दी. उसके बाद उन लोगों ने रोमन कैथोलिक धर्म स्वीकार किया. बाद में इस धर्म से भी मन हटने लग गया.
1891 में बंदगांव के आनंद पांड़ के संपर्क में आए. आनंद स्वांसी जाति और गैरमुंडा जमींदार जगमोहन सिंह के यहां मुंशी का काम करते थे. आनंद रामायण-महाभारत की अच्छी ज्ञान रखते थे. बिरसा अपना ज्यादा समय आनंद पांड़ या उनके भाई सुखनाथ पांड़ के साथ बिताते थे.
इधर, पोड़ाहाट में सरकार ने सुरक्षित वन की घोषित कर दी थी, जिसको लेकर जनजातीय में काफी आक्रोश था और लोग सरकार के विरूद्ध आंदोलन करने लगे.
बिरसा मुंडा ने खुद को बताया ‘धरती आबा’
बिरसा भी इस आंदोलन में भाग लिया. आनंद पांड़ ने बिरसा को समझायाल लेकिन उन्होंने एक न सुनी. बिरसा मुंडा ने एक दिन खुद को पृथ्वी पिता यानी ‘धरती आबा’ बताया. इनके अनुयायियों ने भी इस रूप को स्वीकार किया. अपनी मां को भी उन्होंने खुद को ‘धरती आबा’ के नाम से बुलाने को कहा था.
1895 में पहली बार ब्रिटिश सत्ता ने बिरसा मुंडा को गिरफ्तार किया तो धार्मिक गुरु के रूप में मुंडा समाज में स्थापित हो चुके थे. दो साल बाद जब वे जेल से रिहा हुए को अपने धर्म को मुंडाओं के समक्ष रखना शुरू किया. धार्मिक सुधार का यह आंदोलन आगे चलकर भूमि संबंधी राजनीतिक आंदोलन में बदल गया.
6 अगस्त 1895 को चैकीदारों ने तमाड़ थाने में यह सूचना दी कि बिरसा नामक मुंडा ने यह घोषणा की है कि ‘सरकार के राज्य का अंत हो गया है.’ इस घोषणा को अंग्रेज सरकार गंभीर हो गई.
जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए बलिदान
बिरसा मुंडा ने मुंडाओं को जंगल, जल और जमीन की रक्षा के लिए बलिदान देने के लिए प्रेरित किया. बिरसा मुंडा का पूरा आंदोलन 1895-1900 तक चला. उनकी पहली गिरफ्तारी अगस्त 1895 में बंदगांव से हुई. गिरफ्तारी के पीछे का कारण प्रवचन के दौरान उमड़ने वाली भीड़ थी. अंग्रेज नहीं चाहते थे कि इलाके में किसी तरह की कोई भीड़ एकत्रित हो. अंग्रेजी सरकार ने बहुत चालाकी से बिरसा को रात में गिरफ्तार कर लिया, जब वो सोए थे.बिरसा और उनके साथियों को दो वर्ष की सजा हुई.
जब जेल से हुए थे रिहा…
बिरसा को रांची जेल से हजारीबाग जेल भेज दिया गया था.30 नवंबर 1897 को उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया था. पुलिस ने उन्हें चेतावनी दी कि वह पुरानी हरकत नहीं होना चाहिए. लेकिन अनुयायियों और मुंडाओं की स्थिति देखकर बिरसा अपने वचन पर कायम नहीं रह सके. उन्होंने पुलिस से वादा किया था कि वह किसी तरह का आंदोलन नहीं करेंगे.
फिर वे सरदार आंदोलन में शामिल हो गए. बिरसा ने पैतृक स्थानों की यात्राएं कीं. जिसमें चुटिया मंदिर और जगन्नाथ मंदिर भी शामिल था. लोहरदगा, बानो, कर्रा, बसिया, कोलेबिरा,खूंटी, तमाड़, बुंडू, सोनाहातू और सिंहभूम का पोड़ाहाट का इलाका अंगड़ाई लेने लगा.
बिरसा मुंडा के सबसे बड़े दुश्मन चर्च, मिशनरी और जमींदार
बिरसा ईसाई पादरियों पर भाषण के जरिए जमकर प्रहार करते थे. उनकी बात से जाहिर होती है कि पादरी जनजातियों के बीच किस तरह का अंधविश्वास फैला रहे थे.बिरसा का प्रभाव उसके समुदाय पर पड़ने लगा और परिवर्तन उन्हें एकजुट कर रहा था. पुलिस की नजर बिरसा और उनके अनुयायियों पर टीकी हुई थी.
जमींदारों और पुलिस का अत्याचार बढ़ता जा रहा था. मुंडाओं का कहना था कि आदर्श भूमि व्यवस्था तभी संभव है, जब यूरोपियन अफसर और मिशनरी के लोग पूरी तरह से हट जाएं. इसलिए, एक नया नारा लगा- ‘अबुआ दिशुम, अबुआ राज’ जिसका अर्थ है- अपना देश-अपना राज.
बिरसा मुंडा और उनके अनुयायियों का सबसे बड़ा दुश्मन चर्च, मिशनरी और जमींदार थे. इसलिए, अंतिम युद्ध में सबसे पहले निशाना चर्च को ही बनाया गया. इसके लिए क्रिसमस की पूर्व संध्या को हमले करने की योजना बनाई गई.
24 दिसंबर 1899 से लेकर बिरसा की गिरफ्तारी तक रांची, खूंटी, सिंहभूम का पूरा इलाका विद्रोह के लिए आतुर हो गया था. इस विद्रोह का मकसद चर्च को धमकाना था कि वह लोगों को बरगलाना छोड़ दे, लेकिन वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे थे. इसलिए शाम को चक्रधरपुर, खूंटी, कर्रा, तोरपा, तमाड़ और गुमला का बसिया थाना क्षेत्रों में चर्च पर हमला किया गया. तीर चलाई गई, बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू में वहां के गिरजाघर पर भी तीर से हमला किया गया. सरवदा चर्च के गोदाम को आग से फूंक दिया गया. इसके बाद चर्च से बाहर निकले फादर हाफमैन व उनके एक साथी पर तीर से हमला किया गया. हाफमैन तो बच गए, लेकिन उनका साथी तीर से जख्मी हो गए. 24 दिसंबर की इस घटना से ब्रिटिश सरकार अलर्ट मोड में आ गई. इसके लिए धर-पकड़ शुरू हुआ
पुलिस को सूचना मिली कि 9 जनवरी को सइल रकब पर मुंडाओं की एक बड़ी बैठक होने वाली है. पुलिस दल-बल के साथ वहां पहुंची. यहां पुलिस और विद्रोहियों के बीच जमकर लड़ाई हुई, लेकिन बिरसा मुंडा यहां नहीं मिले. वे पहले ही यहां से भागकर अयूबहातू पहुंच गए थे. इसके बाद पुलिस ने बिरसा के ऊपर इनाम की घोषणा कर दी. बिरसा पोड़ाहाट के जंगलों में अपना स्थान बदलते रहते थे. मानमारू और जरीकेल के सात आदमी बिरसा को खोज रहे थे. इसके बाज 3 फरवरी को उन लोगों ने बिरसा को दबोच लिया और बंदगांव में डिप्टी कमिश्नर को सुपुर्द कर दिया.
जनजातियों ने दिया भगवान का दर्जा
इन लोगों को पांच सौ रुपये का नकद इनाम दिया गया. बिरसा को वहां से रांची जेल में बंद कर दिया गया. 9 जून 1900 को हैजा के कारण बिरसा की मौत हो गई. जाते-जाते बिरसा मुंडा ने लोगों के जीवन पर ऐसी छाप छोड़ी कि जनजातियों ने उन्हें भगवान का दर्जा दे दिया.