भारतवर्ष में आजादी का उत्सव धूमधाम के साथ मनाया जा रहा है. भारतवासी आजादी के जश्न में डूबे हुए हैं. आखिर हमारे पूर्वजों की कड़ी और लंबी तपस्या के बाद हमें ये आजादी जो मिली है. आज दिन उन वीर सपूतों, क्रांतिकारियों और महापुरूषों को याद करने का है. जिन्होंने अपना सब कुछ न्यौछावर कर भारत माता को अंग्रेजों की बेड़ियों से आजाद कराया. आज हम जब खुले आसमान के नीचे चैन की सांस ले रहे हैं. प्रगति के बीज बो रहे है. चांद- मंगल पर पहुंच चुके है तो ये सब उन महान स्वतंत्रता सैनानियों की ही देन है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की नींव ही आजादी है. और ये आजादी हमारे महानायकों की बदोलत ही मिली है. उस समय अंग्रेजों की असहनीय यातनाएं सहकर, जवानी जेलों में खपाकर और अंग्रेजों से लड़ने के लिए हथियार नहीं थे. फिर भी हार ना मानने का जज्बा सिर्फ हिन्दुस्तानियों का ही था. भारत का हर व्यक्ति चाहें वो किसी पंथ या मजहब से क्यों ना हो, सब वतन को आजाद कराने के लिए, अंग्रेजों से लोहा लेने के एकजुट थे. ओर इस सामूहिक ताकत का नतीजा ये रहा कि 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों को भारत छोड़कर वापस जाना ही पड़ा.
इन स्वतंत्रता सेनानियों में सिर्फ पुरूष ही नेतृत्व कर रहे थे. ऐसा कतई नहीं है. हमारी वीर वीरांगनाओं भी पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजी हुकुमत को चुनौती दे रही थीं. उन्होंने भी रणचंडी बनकर जंग के मैदान में अंग्रेजी सरकार को देश से उखाड़ फेंकने के लिए आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया था. आइए जान लेते हैं. अवध प्रांत की उन वीरंगनाओं के बारे में. जिन्होंने पहले स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और अंग्रेजो को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था.
रानी लक्ष्मीबाई
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य की गाथा कौन नहीं जानता. ऐसी महान वीरांगनाएं जिसने अकेले अपने दम पर अंग्रेजी सत्ता की नींव हिला कर रख दी थी. साल 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजी सेना पर भारी पड़ी थी. उनकी वीरता को देखकर अंग्रेज अफसर भी चकित थे. महज 23 साल की अवस्था, जब बच्चियों की खेलने-कूदने की उम्र होती है. रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से लोहा लिया था. रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को हुआ था. उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे और माता का नाम भागीरथी सापरे था. उनके बचपन का नाम मनु और छबीली था. उनकी शादी झांसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुई. लेकिन कुछ ही साल बाद राजा की मृत्यु हो गई तो अंग्रेजों ने झांसी हड़पने के लिए अपनी फौज भेजी लेकिन रानी ने अंग्रेजी सेना की ईंट से ईंट बजा दी. प्रसिद्ध कवियित्री सुभुद्रा कुमारी चौहान ने झांसी की रानी कविता लिखी है. जिसमें उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का शानदार वर्णन किया है.
झलकारी बाई
झलकारी बाई का संबंध भी झांसी से ही है. उन्होंने भी पहले स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर अंग्रेजों के सेना को जंग में धोया था. बता दें झलकारी बाई झांसी के किले के पास भोजला गांव में रहती थी. इस गांव में झलकारी बाई के घराने के लोग आज भी रहते हैं. उनका विवाह रानी के सेना में एक सैनिक से हुआ था. शादी के बाद रानी लक्ष्मी बाई से एक पूजा के दौरान झलकारी बाई की मुलाकात हुई. झलकारी बाई को देख कर रानी लक्ष्मीबाई हैरान रह गईं, क्योंकि वह बिल्कुल लक्ष्मीबाई जैसी दिखती थीं. लक्ष्मीबाई ने झलकारी बाई को झांसी की सेना में शामिल कर लिया. घुड़सवारी और हथियार चलाने की कला में माहिर झलकारी बाई, लक्ष्मीबाई की महिला सैन्य टुकड़ी दुर्गा दल का नेतृत्व करने लगी. अपने पति की मौत के बाद झलकारी बाई ने ने कसम खाई थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं हो जाएगी, वे सिन्दूर नहीं लगाएंगी और न ही कोई श्रृंगार करेंगी. अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारी बाई पूरे बहुत वीरता से लड़ीं थी. झलकारी बाई ने अंग्रेजों को चकमा देने के लिए रानी लक्ष्मीबाई के कपड़े पहनें और सेना की कमान संभाल ली. अंग्रेजों को पता तक नहीं चला कि वह रानी लक्ष्मीबाई नहीं, बल्कि झलकारी बाई हैं. वो सिंहनी की तरह अंग्रेजी सेना पर टूट पड़ी और बलिदान हो गई.
बेगम हजरत महल
अवध के शासक वाजिद अली शाह की पहली बेगम हजरत महल भी रानी लक्ष्मीबाई के समकक्ष ही थी. उन्होंने भी 1857 के विद्रोह में ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाई थी. बेगम हजरत महल ने अपनी बेहतरीन संगठन शक्ति और बहादुरी से अंग्रेजी हुकूमत को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था. वो 1857 की क्रांति में कूदने वाली पहली महिला भी थी. अंग्रेजों ने जब नवाब वाजिद अली शाह को अवध से निर्वासित जीवन बिताने को कलकत्ता भेज दिया. तब बेगम हजरत महल ने आजादी की अलख बुझने नहीं दी. वे खुद सेना का नेतृत्व करने लगीं. बेगम हजरत महल ने ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने और आवाज उठाने के लिए राजी किया था. इतिहासकार ताराचंद लिखते हैं कि बेगम खुद हाथी पर चढ़ कर लड़ाई के मैदान में फ़ौज का हौसला बढ़ाती थीं. बेगम हजरत महल की हिम्मत का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने मटियाबुर्ज में जंगे-आज़ादी के दौरान नज़रबंद किए गए वाजिद अली शाह को छुड़ाने के लिए लार्ड कैनिंग के सुरक्षा दस्ते में भी सेंध लगा दी थी.
अजीजनबाई
महान वीरांगाना अजीजनबाई ने 1857 के गदर में नाना साहब, तात्याटोपे, अजीमुल्ला खान, बाला साहब, सूबेदार टीका सिंह और शमसुद्दीन खान के साथ मिलकर क्रांति की मशाल जलाई थी. बता दें अजीजन बाई पेशे से नर्तकी थी. लेकिन वो देश की आजादी उनका एकमात्र सपना था. बिठुर की लड़ाई क्रांतिकारी जीते लेकिन बाद में हार भी गए लेकिन अजीजन बाई अमर हो गईं. अजीजन बाई अपनी सुंदरता के दम पर अंग्रेजों से तमाम राज उगलवातीं और वे जानकारियां क्रांतिकारियों को देकर उनकी मदद करती थीं. लेकिन एक बार अजीजन पकड़ी गई. उनके सौंदर्य को देखते हुए अंग्रेज सेनापति जनरल हैवलॉक ने उन्हें गलती स्वीकारने और अपने साथ काम करने का प्रस्ताव दिया. लेकिन देशभक्त अजीजन ने उसका प्रस्ताव ठुकराते हुए उससे भारतवासियों ने माफी मांगने और देश छोड़ने के लिए कहा. ये सुनकर हैवलॉक आपा खो बैठा और उसने अजीजन को गोलियों से छलनी करवा दिया. अजीजन बाई भारतीय गौरवगाथा के फलक पर स्वर्णाक्षरों में लिखी इबारत हैं जिसके सामने देश नतमस्तक है।
उषा मेहता
उषा मेहता स्वतंत्रता संग्राम की सबसे कम उम्र की प्रतिभागियों में से एक थी. वे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की अनुयायी थीं. ऊषा मेहता ने 8 साल की उम्र में विरोध-प्रदर्शन में शामिल होकर साइमन गो बैक के नारे लगाए थे. उन्होंने पढ़ाई छोड़ने के बाद खुद को पूरी तरह से स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित कर दिया. यहां तक कि इन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ गुप्त ‘सीक्रेट कांग्रेस रेडियो’ चैनल चलाया, और इसके माध्यम से देश में देशभक्ति के भाषण और समाचार प्रसारित किए. इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा था. साल 1998 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया. उनके जीवन पर आधारित बॉलीवुड फिल्म ऐ वतन मेरे वतन भी आ चुकी है.
बेगम जीनत महल
बेगम जीनत महल अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर की बेगम थीं. ज़ीनत बेगम ने दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में स्वतंत्रता योद्धाओं को संगठित किया और देश प्रेम का परिचय दिया था. ज़ीनत महल अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए लगातार बादशाह को उत्साहित करती रहीं. चारों ओर से घिर जाने पर बेगम ने बहादुर शाह को सलाह दी थी अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण न करें, लड़ाई लड़ें. उन्होंने बहादुरशाह जफर को कहा था, “यह समय गजलें कहकर दिल बहलाने का नहीं है जनाब! बिठूर से नाना साहब का पैगाम लेकर देशभक्त सैनिक आये हैं, आज सारे हिन्दुस्तान की आंखें आप पर लगी हैं, अगर आपने हिन्द को गुलाम होने दिया तो इतिहास आपको कभी माफ नहीं करेगा.”
हैदरीबाई
लखनऊ की तवायफ हैदरीबाई के यहां तमाम अंग्रेज अफसर आते थे और वहां वे क्रांतिकारियों के खिलाफ योजनाओं पर बात किया करते थे. कहा जाता है कि हैदरीबाई ने देशभक्ति का परिचय देते हुए कई महत्वपूर्ण सूचनाओं को क्रांतिकारियों तक पहुंचाया था और बाद में वह भी बेगम साहिबा के सैन्य दल में शामिल हो गयी थी. बेगम की सेना में शामिल अवध की भूमि की साहसिक वीरांगनाओं में आशा देवी, रनवीरी वाल्मीकि, शोभा देवी वाल्मीकि, महावीरी देवी, सहेजा वाल्मीकि, नामकौर, राजकौर, हबीबा गुर्जरी देवी, भगवानी देवी, भगवती देवी, इंदर कौर, कुशल देवी और रहीमी गुर्जरी इत्यादि का नाम भी आदर से लिया जाता है. ये सभी वीरांगनाएं अंग्रेजी सेना के साथ लड़ते हुए देश के लिए कुर्बान हो गयी थीं.
मस्तानीबाई और मैनावती
1857 के विद्रोह में कानपुर की मस्तानी बाई ने भी अपनी देशभक्ति का परिचय दिया था. अपनी अद्भूत सुंदरता की बदोलत मस्तानी बाई अंग्रजों का मनोरंजन करने बहाने उनके पास जाती और उनसे खुफिया जानकारी हासिल कर पेशवा के साथ शेयर करतीं. इस तरह अंग्रेजी की एक-एक चाल पेशवा तक पहुंच जाती थी.
वहीं नाना साहब की 17 वर्षीय मुंहबोली बेटी मैनावती ने भी अपने पिता के संरक्षण में अंग्रेज सरकार के खिलाफ लड़ाई में कूदी थीं. नाना साहब के बिठूर से पलायन के बाद जब अंग्रेज नाना साहब का पता पूछने वहां पहुंचे तो नाना के स्थान पर मौके पर उनकी बेटी मैनावती मौजूद थी. अंग्रेजों ने मैनावती से पता पूछा लेकिन मैनावती का उसने अपना मुंह खोलने के स्थान पर खुद को आग में जिन्दा झोंक दिया जाना स्वीकार कर लिया.
ऊदा देवी
ऊदा देवी और उनके पति मक्का पासी, दोनों नवाब वाजिद अली शाह की सेना में तैनात थे. ऊदा देवी की ड्यूटी बेगम हजरत महल की सुरक्षा में लगी थी. ऊदा देवी के पति मक्का पासी की चिनहट के युद्ध में मौत हो गई थी. तब ऊदा देवी का सैन्य रूप जाग उठा. उन्होंने अंग्रेजों से पति की मौत का बदला लेने की ठानी. 16 नवंबर 1857 को सिंकदराबाद में ऊदा देवी ने पुरूषों की वर्दी पेहनकर अंग्रेजी सेना का सामना किया. वो पीपल के पेड़ पर चढ़ गईं और पेड से ही पीपल के पेड़ से ही उन्होंने एक-एक कर कुछ तय अंतराल पर 36 अंग्रेज सिपाही गोलियों से भून दिया. अंग्रेजों ने पेड़ पर गोली चलाई तो वो नीचे गिर गई. जांच में पता चला कि वो सिपाही कोई पुरूष नहीं बल्कि महान वीरांगना ऊदा देवी हैं. लखनऊ में आज भी उनका नाम बेहद सम्मान से लिया जाता है. उसी सिकंदरबाग चौराहे पर ऊदा देवी की प्रतिमा लगी हुई है.