फिल्म ‘मैदान’ में भारतीय फ़ुटबॉल टीम को बनाने वाले कोच सैयद रहीम की कहानी बड़े पर्दे पर दिखाई गई है. यह उस समय की कहानी है, जब देश की गलियों में क्रिकेट के साथ-साथ फुटबॉल भी खेला जाता था. यह एक ऐसे शख्स की कहानी है, जिसने भारतीय फुटबॉल टीम के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया.
रिव्यू शुरू करने से पहले बता दें कि ये ‘चक दे इंडिया’ नहीं है लेकिन ये फिल्म देखी जानी चाहिए. फिल्म याद दिलाती है कि 64 सालों में हम फुटबॉल से उम्मीदें तोड़ चुके हैं लेकिन कभी हम विश्व की टॉप टीमों में भी गिने जाते थे. अगर कोई सैयद अब्दुल रहीम जैसा फुटबॉल के लिए जान देने वाला कोच मिल जाए तो आज भी ऐसा हो सकता है.
‘मैदान’ की कहानी
ये कहानी 1952 ओलंपिक से शुरू होती है. आजादी के ठीक 5 साल बाद ओलंपिक में हिस्सा लेने वाली भारतीय टीम को कई कमियों के कारण हार का सामना करना पड़ता है. फिर सैयद रहीम ही 1956 ओलंपिक के लिए टीम का चयन करते हैं लेकिन 1956 और 1960 में ओलंपिक में दोबारा हारने के बाद सैयद रहीम को भारतीय फुटबॉल टीम के कोच पद से हटा दिया गया.
इस बीच, सैयद रहीम को लंग कैंसर के बारे में पता चला लेकिन जिंदगी और मौत से जूझ रहे सैयद ने भारतीय फुटबॉल टीम को नई जिंदगी देने की कोशिश की. फुटबॉल टीम के खराब प्रदर्शन के कारण 2 साल बाद फिर से सैयद को भारतीय फुटबॉल टीम की कोचिंग की जिम्मेदारी मिली. मौत के दरवाजे पर खड़े सैयद 2 साल बाद भारतीय फुटबॉल टीम को फिर से खड़ा करने के लिए तैयार हो जाते है. इसमें न सिर्फ सैयद रहीम, बल्कि 1962 की फुटबॉल टीम के खिलाड़ियों की भी कहानी पेश की गई है.
सैयद रहीम की वजह से टीम इंडिया को ब्राजील ऑफ एशिया का खिताब मिला. टीम इंडिया ने एशियन गेम्स में गोल्ड जीता. कैसे वो कैंसर और फुटबॉल फेडरेशन की राजनीति से लड़कर टीम इंडिया के लिए कामयाबी की नई कहानी लिख गए, यही इस फिल्म में दिखाया गया है. सैयद रहीम के परिवार का समर्थन कर कुछ इमोशनल टच देने की भी कोशिश की गई है. सैयद का बेटा भी अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए फुटबॉल टीम में खेलना चाहता है. क्या यह इच्छा अब पूरी होगी की नहीं? यह पता लगाने के लिए फिल्म देखनी होगी.
निर्देशन
हालांकि, फिल्म 3 घंटे लंबी है लेकिन यह आपको अंत तक बांधे रखती है. एसोसिएशन में भारतीय फुटबॉल टीम के मैचों के साथ-साथ कई आयोजन होते रहते हैं लेकिन एक के बाद एक हो रही घटनाओं के कारण थिएटर में फिल्म देखते समय कुछ चीजें छूट जाने का डर रहता है. ऐसा महसूस हो रहा है कि निर्देशक भारतीय फुटबॉल टीम के गठन के 10 वर्षों को 3 घंटे में प्रस्तुत करने में थोड़ा थक गए हैं. फिल्म में फुटबॉल मैच देखते समय आपको ऐसा महसूस नहीं होता कि आप थिएटर में हैं ऐसा लगता है कि आप मैदान में है. फुटबॉल मैचों के दौरान फिल्म में कमेंट्री अद्भुत होती है. इस बात से फिल्म और भी रंगीन हो गई है. निर्देशक फिल्म के गानों और साउंड से अच्छा माहौल बनाने में सफल रहे हैं. इसके लिए अमित शर्मा की सराहना करनी होगी.
अभिनय
सैयद रहीम की भूमिका अजय देवगन ने बहुत बढ़िया ढंग से निभाई है. पूरी फिल्म में अजय देवगन छाए हुए हैं, ये उनके बेहतरीन कामों में से एक है. अजय ने इस किरदार के साथ पूरा इंसाफ किया है. रहीम साहब के इमोशन्स को उन्होंने पर्दे पर शानदार तरीके से पेश किया है लेकिन केवल अजय देवगन का प्रशंसा से काम नहीं चलेगा. इसलिए इस फिल्म में काम करने वाले सभी लोगों ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है. चुन्नी गोस्वामी हों या फिल्म में रंग भरने वाले कमेंटेटर, एक्ट्रेस प्रियामणि ने फिल्म में सैयद रहीम की पत्नी का किरदार निभाया है. छोटे से रोल में भी प्रियामणि ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है. साथ ही गजराज राव और रुद्रनील घोष की भूमिका की सराहना करनी होगी.
म्यूजिक
ए आर रहमान का म्यूजिक और मनोज मुंतशिर के बोल शानदार हैं. फिल्म के गानों और साउंड से अच्छा माहौल बनाने में सफल रहे हैं. इस फिल्म ने भारतीय फुटबॉल टीम के इतिहास के सुनहरे पन्ने को उजागर करने की कोशिश की है. यह फिल्म आपको एक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है.
फिल्म: मैदान
निर्देशक: अमित रवीन्द्र नाथ शर्मा
कलाकार: अजय देवगन, प्रियमणि, गजराज राव
स्टार रेटिंग: 3.5
साभार- हिन्दुस्थान समाचार